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गाजीपुर

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...गाजीपुर के पुराने किले में अब एक स्कूल है, जहां गंगा की लहरों की आवाज तो आती, लेकिन इतिहास के गुनगुनाने या ठंडी सांसें लेने की आवाज नहीं आती। किले की दीवारों पर अब कोई पहरेदार नहीं घूमता, न ही उन तक कोई विद्यार्थी ही आता है, जो डूबते सूरज की रोशनी में चमचमाती हुई गंगा से कुछ कहे या सुने।  गंदले पानी की इस महान धारा को न जाने कितनी कहानियां याद होंगी। परंतु मांएं तो जिनों, परियों, भूतों और डाकुओं की कहानियों में मगन हैं और गंगा के किनारे न जाने कब से मेल्हते हुए इस शहर को इसका ख्याल भी नहीं आता कि गंगा के पाठशाले में बैठकर अपने पुरखों की कहानियां सुनें।  यह असंभव नहीं कि अगर अब भी इस किले की पुरानी दीवार पर कोई आ बैठे और अपनी आंखें बंद कर ले, तो उस पार के गांव और मैदान और खेत घने जंगलों में बदल जाएं और तपोवन में ऋषियों की कुटियां दिखाई देने लगें। और वह देखे कि अयोध्या के दो राजकुमार कंधे से कमानें लटकाये तपोवन के पवित्र सन्नाटे की रक्षा कर रहे हैं।  लेकिन इन दीवारों पर कोई बैठता ही नहीं। क्योंकि जब इन पर बैठने की उम्र आती है , तो गजभर की छातियों वाले बेरोजगारी

साइकिल का पंक्चर

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photo Courtesy_googl e दिन के बारह बज रहे होंगे। जेठ का महीना था, शहर और देहात को जोड़ने के लिए गंगा के ऊपर बने तीन किलोमीटर लंबे पुल पर हवा कुछ ज्यादा ही तेज ही थी। बैरियर के नीचे साइकिल पंक्चर होने के बाद बाबू पैदल ही पुल पार करने के मूड में था। हालांकि अब उसे साइकिल को ठेलना पड़ रहा था। दरअसल उसकी साइकिल का पिछला पहिया पंक्चर हो गया था और उसके पास इतने पैसे नहीं थे वह उसे ठीक करा सके। हां ये सच हैं।  यकीन मानिए, उसका बाप उसे मात्र एक रुपया देता था। जब वह अपने कॉलेज के लिए जाता था। वह भी महीने में कभी कभार, जून 2008 में एक रुपए में क्या मिलता होगा ? आपको बता दूं उस जमाने में साइकिल का पंक्चर भी पांच रुपए में बनता था। लेकिन उसके लिए ये अमूमन रोज की ही बात थी। कभी अगला टायर पंक्चर हो जाता तो, कभी पिछला, कभी चेन खराब हो जाती तो कभी ब्रेक काम नहीं करते, यहां तक की उस साइकिल की सीट भी टूटी हुई थी। जिस पर ठीक से बैठा जा सके। लेकिन मुफलिसी से घिरे होने के बावजूद वह घबराता नहीं था। हां कभी-कभी वह चिढ़ने लगता था। उस दिन भी उसके मन में यहीं सवाल उठ रहे थे। कैसी है उसकी ये जिंदगी