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जब शहर हमारा सोता है

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फनियर और खंजर जैसे दो झुंड में बंटे दस बीस लौंडे किसी भी सुहासधाम और करीमपुरा के हो सकते हैं. ये एक ही धर्म-जाति के या अलग-अलग हो सकते हैं. चूंकि झुंड में बंटे है, तो लड़ेंगे ही और यह लड़ाई खेल के मैदान में भी हो सकती है और चचा की दुकान पर भी, ताकि अमुक गली पर किस झुंड की बपौती होगी, गली हिंदू है या मुसलमान, उस टोले की है या इस मुहल्ले की. यह तय किया जा सके. पीयूष मिश्रा के शहर में भी फनियर और खंजर में बंटे लौंडे जर, जमीन और जोरू के लिए लड़ते रहते हैं. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पीयूष मिश्रा लिखित नाटक ‘जब शहर हमारा सोता है’ इस देश में होने वाले सांप्रदायिक दंगों के कारणों का सटीक विवरण है. मेरठ, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों की कहानी भी पीयूष के ‘शहर’ से मिलती जुलती है.   पीयूष मिश्रा के तेवर और ताब से सजे इस नाटक को मंच पर ना देख पाने का मलाल तो मुझे है लेकिन इसे किताब की शक्ल हाथों में लेकर पढ़ना भी रोमांचक है. पीयूष के लिखे डॉयलॉग खालिश भदेस है और यही उनके पात्रों की ताकत भी.. जैसे, नाटक के एक दृश्य में त्यागी बोलता है.. ‘एक हाथ पड़ने की देर है